कोयला खनन ने कर दिया है खोखला, छत्तीसगढ़ सरकार ने कोयला खदान छोड़ जंगलों पर दिया ध्यान



कई सालो से हो रही खनन ने छत्तीसगढ़ की जमीन को खोखला कर दिया है: पर इस बार राज्य सरकार ने नई नए कोयला खदानें शुरू करने के बजाय काजू से लेकर इमली तक विभिन्न जंगलों के उत्पाद बढ़ाने के लिए ध्यान दिया है।बस्तर जिले के जंगलों में आदिवासी महिलाओं को इमली के फल तोड़ते हुए देखना तो आम बात है। परंतु इस बार उनके चेहरे खिले हुए हैं। बहुत अधिक फसल जो हुई है। "आदिवासी उद्यमिता योजना" लागू करने के देखरेख करने वाली सुषमा नेतम कहती हैं, कि"न्यूनतम मूल्य तय किया गया है जिसका मतलब यह है कि बिचौलिये व व्यापारियों को उनके फसल का सही दाम चुकाना होगा। इससे फायदा यह होगा की परिवारों की आय भी बढ़ी है।” नेतम यह भी कहती हैं कि जब से छत्तीसगढ ने कोयले से रुख मोड़कर एक ग्रीन इकॉनमी की ओर बढ़ने का फैसला लिया है, तब से उत्पादन और भी अधिक बढ़ी है। वे ये भी बताती हैं, कि "हमारे पास 200 से भी ज्यादा ग्रामीण समूह कार्यरत हैं। 49 हाट तथा 10 प्रसंस्करण केंद्र भी हैं ।” कोयला नहीं, बल्कि जंगल है ज्यादा जरूरी , हालाकि भारत सरकार द्वारा अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए कोयला उत्पादन को बढ़ाने पर जोर तो दिया ही जा रहा है , परंतु छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 2019 में ऐलान किया है, कि राज्य नई कोई भी कोयला खदानें शुरू नहीं करेंगी, जिससे जंगलों को बचाया जा सके तथा उत्सर्जन घटाने में योगदान दिया जा सके। कोयला भंडारण के नजरिए से छत्तीसगढ़ भारत का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक राज्य है। 


यहां पर लौह अयस्क, बॉक्साइट तथा चूना पत्थरों के भी बड़े भंडार हैं। परंतु आज भी छत्तीसगढ़ भारत के सबसे गरीब राज्यों में ही शामिल है, यह की 40 प्रतिशत आबादी आज भी गरीबी रेखा के नीचे आती है। 2019 में छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने वन धन योजना शुरू की है, जिसके अंतर्गत 52 जंगली उत्पादों का खरीद मूल्य बढ़ाया गया है। पिछले ही साल सरकार ने कुल उत्पाद का 73 प्रतिशत हिस्सा खरीदा हुआ है। यहां के वन और उद्योग सचिव मनोज कुमार पिंगुआ बताते हैं, कि "खनन राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य हिस्सा है साथ ही सख्त नियमों के तहत जारी है। परंतु जंगल अब हमारी प्राथमिकता बन गई हैं। हम यहां के वनवासियों की जिंदगी सवारने और सुधारने के लिए खनन से होने वाली अरबों की आय को भी भूलने  को तैयार हैं। खनन में खासकर कुछ ही लोग धन कमाते हैं परंतु ग्रीन इकॉनमी के जरिए मुनाफा सीधा लोगों के हाथ में जाता है।” पहले से बेहतर हो चुके छत्तीसगढ़ का 44 प्रतिशत वन भूमि है। अब यहां इसके इर्द गिर्द ऐसे उद्योग खड़े करने के बारे में सोच रही है , जो लकड़ी पर निर्भर न करे।


अधिकारियो की जुबान: यहां के अधिकारियों का कहना है, कि इसके माध्यम से वन उत्पाद जमा करने वाले 17 लाख से भी अधिक परिवारों को लाभ होगा। ये अधिकतर ऐसे परिवार हैं, जिनको जंगलों के कटने से अपनी आजीविकाओं से हाथ धोना पड़ता है। आदिवासी समुदायों के 40 प्रतिशत से भी अधिक लोग आजीविका के लिए वनों पर ही निर्भर करते है। जैसे की 21 साल की रेवती बैगल जो हाल ही में दोबारा शुरू हुए एक काजू प्लांट में काम करती हैं। वह काजू तथा अन्य उत्पादों को देशभर के विभिन्न बाजारों में भेजे जाने के लिए तैयार करती हैं। इससे पहले उन्हें काम के लिए सैकड़ों मील दूर मजदूरी के लिए जाना पीडीटीए था। इसके साथ ही बैगल कहती हैं, कि "मैं पैदल चलकर अपने काम के लिए जाया करती हूं तथा मुझे महीने के 8000/- रुपये तंखा के रूप में मिलते हैं। यह काम की तलास में गुजरात जाने व किसी और के खेतों पर मजदूरी करने से भी कहीं ज्यादा अच्छा है, ”वन प्रोडक्ट यानी उत्पाद आमतौर पर महिलाओं द्वारा ही जमा किए जा रहे हैं। वे इन उत्पादो को हाट बाजारों में बेचती हैं तथा इससे होने वाली आय से घरों की जरूरतों की पूर्ति करते है। परंतु इस व्यवस्था में बिचौलिए भी हुआ करते  हैं जो काफ़ी मुनाफा कमाते हैं।


इसके बाद भी है समस्याएं:समस्याएं अब भी हैं, सेंटर फॉर लेबर रिसर्च ऐंड एक्शन नाम की एक संस्था में संयोजक अनुष्का रोज कहती हैं कि भंडारण की सही सुविधाएं न होने व ग्रामीण इलाकों में प्रसंस्करण न होने का  सीधा असर लोगों की आय पर भी पड़ती  है, वह कहती हैं, कि "महुआ को ले लीजिए। लोग इसे भी जमा करते हैं और साथ ही स्थानीय व्यापारियों को भी बेच देते हैं , क्योंकि इसको संभालकर नहीं रख पाते।और दो महीने बाद वे खुद उसी महुआ को महंगे दाम पर खरीदते हैं। लेकिन अगर वन धन योजना पर कड़ी और अच्छी निगरानी रखी जाए तो यह स्थिति भी बदली जा सकती है।” बाढ़ से लेकर सूखे तक," प्रलय के मंजर दलित आदिवासी मंच " नाम की संस्था चलाने वालीं राजीम केटवास कहती हैं , कि स्थिति सुधारने की तमाम कोशिशों के बावजूद योजनाओं को पूरा तरह से लाभ नहीं मिल पा रहा है। वह ये भी कहती हैं, कि "भुगतान में देरी व डिजिटल भुगतान सबसे बड़ी बाधाएं है। यह के लोग नकद भुगतान ही करना चाहते हैं।” मनोज पिंगुआ बताते हैं कि इस तरह की कई सारी समस्याएं हैं, परंतु वह इन्हें सुलझाने के लिए प्रयास जारी रहने की बात कहते हैं। वह यह भी कहते हैं,  कि स्थानीय बैंकों के साथ साथ मिलकर यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है कि महिलाओं को अपने पैसे की डिजिटल जानकारी हो।


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